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नई सहस्त्राब्दी में स्त्री विमर्श के मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक आयाम प्रत्यक्षा की कहानियों के विशेष सन्दर्भ में
डाॅ. आराधना सारवान
Abstract:
21वीं सदी समस्त विश्व के लिए अनेक अर्थों में एक नई सदी की तरह अवतरित हुई। अर्थ, राजनीति, बाजार, संचार, शिक्षा, नई तकनीक, विज्ञान सभी क्षे़त्रों ने सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया और सारा संसार एक विश्व गाँव की परिभाषा में सिमटने को तैयार दिखाई पड़ा। ऐसे में निश्चित रूप से अन्य क्षेत्रों की भाँति भारतीय समाज में स्त्री ने भी अपने उत्थान, विकास और आज़ादी के सपने देखने शुरू किये। उस स्त्री ने जो भारतीय संस्कृति और धर्म में देवी ओैर सती की उपमा तो पाती रही है, लेकिन उसकी स्थिति सदियों से घूँटे से बँधी गाय के अतिरिक्त और कुछ नहीं रही। बल्कि यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि कुछ अपवादों को छोड़ कर उसकी स्थिति आज भी जानवरों से भी बदत्तर है। न केवल उसके मानवीय अधिकारों का हनन होता रहा है। बल्कि उसका शारीरिक और मानसिक शोषण आज भी भारतीय समाज की मानसिकता बना हुआ है। जिसके मूल में भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक संरचना है, जिसने स्त्री को हमेशा दोयम दर्जे पर रखा है। वो स्त्री जो ना केवल भारतीय आबादी का आधा हिस्सा है बल्कि भारतीय सामाजिक संस्थागात ढाँचे की रीड़ है। उस पर बोझ तो सारे डाले गए हंै, बस अधिकारों से वंचित रखा गया । और अपनी स्थिति के लिए स्त्रियाॅँ भी कुछ सीमा तक या बहुत कुछ जिम्मेदार रही है। जिसका सीधा -सीधा कारण उसकी अशिक्षा, आत्मनिर्भरता का अभाव भी रहा है । जहाँ तकनीकि, विज्ञान और आर्थिक व्यापार जगत में भारत विश्व में अनेक क्षेत्रों में अपना लोहा मनवा रहा है। अनेक शोध यह साबित कर चुके है कि स्त्रियों की स्थिति में भारत विश्व में बार-बार निचले पायदान पर अपनी जगह बनाता है।